जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ

मुँह की खा के देखो कैसे अब मुँह नोच रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ


लिखना था सुन्दर कल लेकिन देखो मेरी नादानी

भविष्य के पन्नों पर खुद ही कालिख पोत रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ


सपने थे आंखों में कि मंगल और चांद पे पहुँचूँ

 पर कुदरत से टकराया और अब आंसू पोछ रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ


पछतावा तो है मैनें खिलवाड़ किया कुदरत से

पर भरपाई कैसे हो इस गलती की सोच रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ


प्रकृति के घाव भरें जल्दी ऐ “राज” इसी मकसद से

जितना भी सम्भव है उतना मैं पौधे रोप  रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ


मुँह की खा के देखो कैसे अब मुँह नोच रहा हूँ

मैं इंसान हूँ जंगल काट के आक्सीजन खोज रहा हूँ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *