बन के साया मोहब्बत का हमें घेरती क्यों हो
नजर में रहती हो मेरी तो नजरें फेरती क्यों हो
गर डर लगता है तुमको मोहब्बत की आग से
फिर इस आग को हँस हँस के छेडती क्यों हो
माना कि है परहेज तुमको हम इश्क वालों से
तो भला हुस्न की ये खुशबुएँ बिखेरती क्यों हो
बहुत तकलीफ होती है तुम्हें हम पीने वालों से
तो फिर अपनी आँखों से मय उडेलती क्यों हो
अगर तुमको खेल इश्क का अच्छा नहीं लगता
हमारे दिल से ऐ जालिम बोलो खेलती क्यों हो
बन के साया मोहब्बत का हमें घेरती क्यों हो
नजर में रहती हो मेरी तो नजरें फेरती क्यों हो